डेली संवाद, अमृतसर (रमेश शुक्ला ‘सफर’)। Mohammed Rafi: 1970 में आई फिल्म पगला कहीं का में मोहम्मद रफी साहब के गाए गीत “तुम मुझे यू भुला न पाओगे , जब कभी भी सुनोगे गीत मेरे , संग-संग तुम भी गुनगुनाओगे” भले ही आज दुनिया गा रही है लेकिन असलियत यह है कि आज की पीढ़ी उन्हें भूल रही है। भूल तो सरकारें भी गई। कितनी आई कितनी गई लेकिन उनकी यादगार स्थापित शहर में नहीं कर सकी। जहां रोजाना लाखों पर्यटक दुनिया से आते हैं।
यह भी पढ़ें: पत्नी संग कम खर्च में बाली घूमने का शानदार मौका, जानें कितना खर्च होगा
सुर सम्राट मोहम्मद रफी (Mohammed Rafi) को उनके पैतृक गांव को छोड़ जिले में सियासत ने अब तक छह फुट की जगह नहीं दी। भला हो मोहम्मद रफी के दीवाने संगीतकार हरिंदर सोहल का जिन्होंने अपनी जेब से पीतल की प्रतिमा बनाकर उन्हें विरसा विहार के मुख्य गेट पर स्थान दिया। पिछले एक सप्ताह से हरिंदर सोहल ने जहां मोहम्मद रफी के पुण्य तिथि को लेकर विरसा विहार में सुर उत्सव का आयोजन किया।
छह संतानों में रफी दूसरे नंबर पर थे
पंजाब के अमृतसर जिले के गांव कोटला सुल्तान में मोहम्मद रफी ने 24 दिसंबर 1924 को हाजी अली मोहम्मद के परिवार में जन्म लिया। हाजी अली के छह संतानों में रफी दूसरे नंबर पर थे। घर में रफी को फीको नाम से बुलाया करते थे।
मोहम्मद रफी को लेकर वैसे तो बहुत किस्से कहानियां हैं लेकिन बहुत कम लोग जानते होंगे कि मोहम्मद रफी ने अपने गीतों से चीन से युद्ध भी लड़ा था। रफी ने चीन के युद्ध के समय 14 हजार फुट ऊंचाई पर स्थित सांगला गए थे जहां उन्होंने भारतीय सैनिकों के हौसला बढ़ाने के लिए गीत गाया था।
सात साल की उम्र में वो लाहौर चले गए
मोहम्मद रफी की याद में हरेक साल सुर से उन्हें श्रद्धांजलि देने वाले हरिंदर सोहल कहते हैं कि भारत -पाकिस्तान दोनों देश मोहम्मद रफी के गीतों पर जहां फिदा है वहीं दुनिया उनके गीतों पर झूमती है। मोहम्मद रफी की गायकी पर बचपन से ही गांव वाले फिदा थे। करीब सात साल की उम्र में वो लाहौर चले गए।
इसके पहले गांव में आने वाले फकीर का गीत सुनकर रफी उनके पीछे-पीछे सारा दिन लगे रहते थे। खास बात है कि रफी के परिवार का संगीत से दूर-दूर तक कोई नाता नहीं था। लाहौर में अपने भाई की नाई की दुकान पर अक्सर वो काम सीखने जाते थे , काम करते समय वो गुनगुनाते रहते।
पंजाबी फिल्म गुल बलोच
मोहम्मद रफी जब 13 साल के थे तभी लाहौर में कुन्दन लाल सहगल का शो था। शो के दौरान लाइट चली गई। लाइट जाने के बाद कुन्दन लाल सहगल ने शो करने से मना किया तो रफी के बड़े भाई ने आयोजकों से विनय करके उन्हें मौका दिलाया। रफी की आवाज सुन हर कोई दंग रह गया।
श्रोताओं के बीच प्रसिद्ध संगीतकार श्याम सुंदर भी थे जिन्होंने रफी को सुना तो बड़े प्रभावित हुए। यही वजह रही कि पहला गीत 1944 में रफी ने पंजाबी फिल्म गुल बलोच के लिए गया और उस फिल्म का निर्देशन श्याम सुंदर ने किया था।
लाहौर में चौक का नाम भी रखा
मोहम्मद रफी को लेकर राष्ट्रपति से रंगमंच का सम्मान पाने वाले केवल धालीवाल कहते हैं कि मैं रंगमंच के लिए कई बार पाकिस्तान गया। पाकिस्तान की आवाम रफी साहिब को अपना मानती है। यही वजह है कि उनके नाम से लाहौर में चौक का नाम भी रखा है।
बात करें भारत की तो उनके पैतृक गांव को छोड़ मोहम्मद रफी के नाम से शहर में कोई बुत (विरसा विहार) को छोड़कर नहीं स्थापित किया गया है और न ही किसी चौक चौराहे का नाम उनके नाम पर रखा गया है। मोहम्मद रफी के दीवाने कहे जाने वाले हरिंदर सोहल भी कहते हैं कि मोहम्मद रफी का यादगार में शहर में किसी चौक चौराहे का नाम रखा जाना चाहिए।
भले ही आज मोहम्मद रफी दुनिया में नहीं है लेकिन उनके गीत आज भी दुनिया में सुर प्रेमियों के दिलों में बजते हैं। बता दें, मोहम्मद रफी ने आज के दिन 31 जुलाई 1980 को भारतीय जमीं मुंबई में आखिरी सांस ली।