No Mo Phobia: कही आपके बच्चे भी ना हो जाये No Mo Phobia का शिकार, जाने क्या है No Mo Phobia?

Daily Samvad
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डेली संवाद, नई दिल्ली। No Mo Phobia: मोबाइल के सारा दिन इस्तेमाल (मोबाइल की लत लगना) को नो मो फोबिया कहते है। और आजकल यह बीमारी सबको हो रही है। बड़े से लेकर बच्चो तक और बच्चे इसका ज्यादा शिकार हो रहे है।

एक शोध में सामने आया कि सोशल मीडिया के जरूरत से ज्यादा इस्तेमाल से छात्र आत्मविश्वास की कमी और मानसिक रोग के शिकार बन रहे हैं और स्मार्टफोन से दूर रहने के डर के कारण वे अवसाद की समस्या से भी जूझ रहे हैं।

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शोध में यह भी कहा गया कि सोशल मीडिया के सभी प्रभाव नकारात्मक नहीं होते, लेकिन जो लोग सोशल मीडिया की लत का शिकार हैं उन्हें मदद की जरूरत है।

नोमोफोबिया से जूझ रहे हैं बच्चे

यह शोध चीन, ताइवान और मलेशियाई विश्वविद्यालय के छात्रों पर किया गया। ऑनलाइन सर्वेक्षण में 622 छात्रों ने भाग लिया, इसमें पाया गया कि स्मार्टफोन और सोशल मीडिया का जरूरत से ज्यादा उपयोग करने वालों को मानसिक स्वास्थ्य संबंधित बीमारी हो सकती है। विशेष रूप से, छात्र नोमोफोबिया से जूझ रहे है।

नोमोफोबिया से ग्रस्त लोगों के मन में यह डर रहता है कि उनका स्मार्टफोन संचालन योग्य नहीं है। इसके अलावा कई छात्र वजन से संबंधित समस्या को लेकर भी चिंता से जूझते रहते हैं। वजन को लेकर कुछ लोग उन्हें कमतर आंकते हैं। ऐसे लोग जो वजन से संबंधित अपराधबोध से जूझ रहे हैं उनमें कम आत्मसम्मान, कम आत्मविश्वास और नकारात्मक भावनाएं जैसे लक्षण पाए जाते हैं।

क्या है नोमोफोबिया?

जब किसी इंसान को मोबाइल की लत लग जाती है, तो इसे मेडिकल भाषा में नोमोफोबिया कहा जाता है। ये शब्‍द ‘नो मोबाइल फोबिया’ से मिलकर बना है। इसमें व्‍यक्ति को एक तरह का फोबिया हो जाता है कि कहीं उसका मोबाइल उससे दूर न हो जाए।

इस स्थिति में व्यक्ति को इस बात का भी डर लगा रहता है कि कहीं उसके फोन की बैटरी ना खत्म हो जाए. कहीं उसका फोन कहीं खो ना जाए। सर्वे में कहा गया है कि दुनिया भर के लगभग 84 फ़ीसदी लोगों में नोमोफोबिया की समस्या है और भारत में 4 में से 3 लोग कथित तौर पर नोमोफोबिया से पीड़ित हैं।

घबराहट और तनाव का भी सामना कर रहे हैं बच्चे

मलेशियाई विश्वविद्यालयों के 380 छात्रों पर किए गए एक अन्य शोध में पाया गया कि सोशल मीडिया के अत्याधिक उपयोग से छात्र अवसाद, घबराहट और तनाव जूझ रहे हैं। पहले अध्ययन में देखा गया कि जो छात्र प्रतिदिन औसतन लगभग पौने पांच घंटे सोशल मीडिया का उपयोग करते हैं, उनमें 40 फीसदी से अधिक में सोशल मीडिया की लत का जोखिम रहता है।

दूसरे अध्ययन में पाया कि जो छात्र प्रतिदिन सोशल मीडिया पर साढ़े चार घंटे बिताते हैं, उसमें से एक तिहाई से अधिक को सोशल मीडिया की लत का जोखिम रहता है। सोशल मीडिया उपयोग करने वालों में सबसे अधिक युवा हैं और वे ही इसके नकारात्मक प्रभावों के लिहाज से सबसे संवेदनशील हैं।

अकेलेपन को दूर करने सोशल मीडिया का हो रहा इस्तेमाल

ऐसी भी नहीं है कि सोशल मीडिया का इस्तेमाल हमेशा बुरा ही होता है। सोशल मीडिया के उपयोग के फायदों को लेकर भी बड़े स्तर पर अध्ययन किये गए हैं। विशेष रूप से, सोशल मीडिया भावनाएं और विचार व्यक्त करने की आजादी देता है। लोग अपने सामाजिक दायरे को बढ़ाने, अकेलेपन को दूर करने और अपनेपन की भावना को बढ़ावा देने के लिए सोशल मीडिया का उपयोग करते हैं।

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जो लोग किसी वजह से अपने करीबी दोस्तों या परिवार के सदस्यों नहीं मिल पाते हैं उनकी कमी को पूरा करने के लिए सोशल मीडिया काफी कारगर साबित हुआ है। इस तरह के मामले में ऐसा भी देखा गया कि सोशल मीडिया के उपयोग से उनके मानसिक स्वास्थ्य में सुधार हुआ है।

बच्चों के मानसिक स्वास्थ्य पर पड़ रहा असर

शोध से पता चलता है कि जब सोशल मीडिया का इस्तेमाल जरूरत से ज्यादा किया जाने लगे तो समस्याएं भी उत्पन्न होने लगती हैं और किशोरों के मानसिक स्वास्थ्य पर इसका नकारात्मक प्रभाव हो सकता है। जब भी कोई सोशल मीडिया के अत्यधित इस्तेमाल की लत से जूझ रहा होता है तो उसके लिए अपनी लालसा को नियंत्रित करना मुश्किल हो जाता है।

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