डेली संवाद, जालंधर। Shani Stotram: आज शनिवार है। इस दिन शनि देव जी महाराज की पूजा से विशेष लाभ मिलता है। सनातन धर्म में शनिवार के दिन न्याय के देवता शनिदेव की पूजा की जाती है। भगवान शनिदेव को न्याय का देवता कहा जाता है। ज्योतिष शास्त्र के अनुसार, शनिदेव कर्मों के अनुरूप फल देते हैं।
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उत्तम कर्म करने वाले को शुभ फल देते हैं और बुरे कर्म करने वाले को दंडित करते हैं। धार्मिक मान्यता के अनुसार, शनिवार के दिन विधिपूर्वक भगवान शनिदेव की पूजा करने से साधक को जीवन के सभी दुख और संकट से छुटकारा मिलता है। साथ ही बिजनेस में सफलता हासिल होती है।
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अगर आप भी शनिदेव की कृपा पाना चाहते हैं, तो शनिवार के दिन पूजा के दौरान दशरथ कृत शनि स्त्रोत का पाठ अवश्य करें। मान्यता है कि दशरथ कृत शनि स्त्रोत का पाठ करने से साधक के सभी संकट खत्म होते हैं और शुभ फल की प्राप्ति होती है।
दशरथकृत शनि स्तोत्र (Dashrath Krit Shani Stotram Lyrics)
दशरथ उवाच:
प्रसन्नो यदि मे सौरे ! एकश्चास्तु वरः परः ॥
रोहिणीं भेदयित्वा तु न गन्तव्यं कदाचन् ।
सरितः सागरा यावद्यावच्चन्द्रार्कमेदिनी ॥
याचितं तु महासौरे ! नऽन्यमिच्छाम्यहं ।
एवमस्तुशनिप्रोक्तं वरलब्ध्वा तु शाश्वतम् ॥
प्राप्यैवं तु वरं राजा कृतकृत्योऽभवत्तदा ।
पुनरेवाऽब्रवीत्तुष्टो वरं वरम् सुव्रत ॥
दशरथकृत शनि स्तोत्र:
नम: कृष्णाय नीलाय शितिकण्ठ निभाय च ।
नम: कालाग्निरूपाय कृतान्ताय च वै नम: ॥1॥
नमो निर्मांस देहाय दीर्घश्मश्रुजटाय च ।
नमो विशालनेत्राय शुष्कोदर भयाकृते ॥2॥
नम: पुष्कलगात्राय स्थूलरोम्णेऽथ वै नम: ।
नमो दीर्घाय शुष्काय कालदंष्ट्र नमोऽस्तु ते ॥3॥
नमस्ते कोटराक्षाय दुर्नरीक्ष्याय वै नम: ।
नमो घोराय रौद्राय भीषणाय कपालिने ॥4॥
नमस्ते सर्वभक्षाय बलीमुख नमोऽस्तु ते ।
सूर्यपुत्र नमस्तेऽस्तु भास्करेऽभयदाय च ॥5॥
अधोदृष्टे: नमस्तेऽस्तु संवर्तक नमोऽस्तु ते ।
नमो मन्दगते तुभ्यं निस्त्रिंशाय नमोऽस्तुते ॥6॥
तपसा दग्ध-देहाय नित्यं योगरताय च ।
नमो नित्यं क्षुधार्ताय अतृप्ताय च वै नम: ॥7॥
ज्ञानचक्षुर्नमस्तेऽस्तु कश्यपात्मज-सूनवे ।
तुष्टो ददासि वै राज्यं रुष्टो हरसि तत्क्षणात् ॥8॥
देवासुरमनुष्याश्च सिद्ध-विद्याधरोरगा: ।
त्वया विलोकिता: सर्वे नाशं यान्ति समूलत: ॥9॥
प्रसाद कुरु मे सौरे ! वारदो भव भास्करे ।
एवं स्तुतस्तदा सौरिर्ग्रहराजो महाबल: ॥10॥
दशरथ उवाच:
प्रसन्नो यदि मे सौरे ! वरं देहि ममेप्सितम् ।
अद्य प्रभृति-पिंगाक्ष ! पीडा देया न कस्यचित् ॥