हाशिए पर दोआबा के दलित: चौ. जगजीत के निधन के बाद दोआबा के दलित नेताओं की सरकार में धमक हुई शून्य, बीएसपी-अकाली गठबंधन कितना होगा कारगर, कांग्रेस के लिए क्या है चुनौती, AAP और BJP की क्या है ऱणनीति, पढ़ें

Daily Samvad
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महाबीर सेठ
@mahabirjaiswal
किसी समय में दोआबा की दलित राजनीति का पंजाब सरकार में बड़ा धमक रहता था। खासकर चौधरी जगजीत सिंह जैसे कद्दावर नेताओं की धमक कैप्टन सरकार में होती थी, लेकिन चौधरी के निधन के बाद दोआबा के दलित नेताओं की सरकार में धमक जीरो हो गई है। यहां तक कि चुनावी जीत कर विधायक बने स्व. चौधरी के बेटे सुरिंदर चौधरी को सरकार ने कोई पद नहीं दिया। दोआबा के दूसरे दलित नेता और जालंधर वेस्ट हलके से विधायक सुशील रिंकू को भी सरकार ने कहीं भी एडजस्ट नहीं किया। अब कांग्रेस समेत अकाली और भाजपा दलित कार्ड खेल रही है।

उत्तर प्रदेश से जनाधार खो चुकी बहुजन समाज पार्टी को अकाली दल के साथ गुरुओं फकीरों की धरती पर वजूद तलाशना सबसे बड़ी चुनौती साबित होगी। क्योंकि बसपा के कद्दावर नेता पहले ही कांग्रेस, अकाली दल और भाजपा में शामिल हो चुके हैं। बसपा काडर के जमीनी नेता पहले से ही अन्य पार्टियों में शामिल होकर चुनाव लड़ रहे हैं। दूसरी तरफ अकाली दल और बसपा के साथ आने से कांग्रेस को झटका लगना तय माना जा रहा है।

सभी दल खेल रहे हैं दलित कार्ड

पंजाब में मौजूदा कांग्रेस की सरकार को टक्कर देने के लिए सुखबीर बादल ने दलित कार्ड खेलते हुए न केवल बसपा से राजनीतिक गठजोड़ किया, बल्कि दलित नेता को डिप्टी सीएम बनाने का ऐलान भी कर चुके हैं। भाजपा इससे एक कदम आगे जाते हुए राज्य में दलित नेता को मुख्यमंत्री बनाने की घोषणा कर चुकी है। इस सबके बीच आपसी कलह से गुजर रही कांग्रेस भी राज्य में दलित नेता को डिप्टी सीएम पद दे सकती है।

यानि पंजाब की राजनीति में इस बार दलित ही केंद्रित हैं। पंजाब में 39 फीसदी दलित वोटर हैं, लेकिन आज तक दलित नेताओं को सरकार में डिप्टी सीएम का पद नहीं मिला है। इससे पहले करतारपुर सीट से लगातार चुनाव जीतने वाले स्व. चौधरी जगजीत सिंह दोआबा में बड़े दलित लीडर थे, जो मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह के बाद बड़े ओहदा रखते थे, हालांकि कांग्रेस ने उन्हें तब भी डिप्टी सीएम नहीं बनाया था।

चौधरी जगजीत सिंह के निधन के बाद दोआबा में दलित राजनीति हाशिए पर आ गई। दलितों का गढ़ माने जाना वाला दोआबा में किसी भी दलित लीडर को कांग्रेस सरकार ने आगे नहीं किया। चौधरी जगजीत सिंह के बेटे सुरिंदर चौधरी को कांग्रेस ने किसी तरह टिकट तो दे दिय़ा, लेकिन विधायक बनने के बाद सुरिंदर चौधरी को कांग्रेस ने कोई खास तवज्जो नहीं दी।

सुशील रिंकू भी अपने हलके तक सीमित होकर रह गए

दूसरी तरफ जालंधर वेस्ट हलके से चुनाव जीते सुशील रिंकू भी अपने हलके तक सीमित होकर रह गए। जबकि पूरा दोआबा दलित नेता के लिए खाली पड़ा है। एक बात यह भी है कि सुशील रिंकू के राजनीतिक गुरु माने जाते राणा गुरजीत सिंह इस समय सियासी हाशिये पर हैं। एक समय कैप्टन के खासे नजदीक माने जाते राणा गुरजीत सिंह अब बिल्कुल अलग थलग हैं। अभी हाल में ही सुखपाल खैहरा को कांग्रेस में फिर से वापसी से राणा नाराज चल रहे हैं। 2017 में जब कांग्रेस की सरकार बनी थी, तो राणा गुरजीत सिंह को बिजली जैसे महकमे का मंत्री बनाया गया था, लेकिन रेत खनन के आऱोपों को लेकर राणा से मंत्रालय छिन गया था।

पंजाब में आंतरिक कलह से जूझ रही कांग्रेस के लिए शिरोमणि अकाली दल (शिअद) और बहुजन समाज पार्टी (बसपा) के नए गठबंधन ने चुनौती बढ़ा दी है। दोनों में 25 साल के बाद गठबंधन हुआ है। पंजाब की धरती और हालात इन दलों के गठबंधन के अनुकूल भी प्रतीत होते हैं। किसान आंदोलन से उपजी स्थितियों से पंजाब में शिअद के लिए अभी भी चुनौतीपूर्ण स्थिति बनी हुई है। हालांकि, भाजपा और केंद्र सरकार से अलग होकर उसने काफी हद तक जनता की नाराजगी को दूर करने की कोशिश की है।

इसके बावजूद राज्य में आम आदमी पार्टी (आप) की मौजूदगी के चलते शिअद के लिए अपने बूते बेहतर प्रदर्शन संभव नहीं है। हालांकि, चुनावी गठबंधन और ठोस रणनीति अपनाने से उसे कांग्रेस में चल रही अंदरूनी कलह और सत्ता विरोधी लहर का लाभ मिल सकता है। सूत्रों के अनुसार अकाली दल राज्य के कुछ और दलों से भी गठबंधन की कोशिश कर सकता है। सूत्रों की मानें तो कई छोटे-बड़े दलों से शुरुआती चर्चाएं हुई भी हैं। आने वाले दिनों में स्थिति और स्पष्ट होगी।

पंजाब और बसपा

पंजाब में बसपा ने पिछले कई चुनाव अकेले लड़े हैं लेकिन उसका प्रदर्शन बेहद खराब रहा है। वोट प्रतिशत भी एक-दो फीसदी से ज्यादा नहीं रहा है। जबकि राज्य में 39 फीसदी आबादी दलित है जो बसपा का परंपरागत वोट है। बसपा के पक्ष में एक अच्छी बात यह है कि उसे बाहरी दल नहीं माना जाता है क्योंकि काशीराम पंजाब के थे। उसे स्थानीय दल के रूप में पहचान मिली हुई है।

आप फैक्टर

पंजाब में 2017 के विधानसभा चुनाव से पहले तक दलितों का ज्यादा समर्थन अकाली दल को ही मिलता रहा है। लेकिन 2017 में आप ने राज्य में चुनाव लड़ा। अकाली सरकार के खिलाफ चली सत्ता विरोधी लहर का फायदा उठाकर आप ने दलित वोट पर हाथ साफ किया। नतीजा यह हुआ कि कांग्रेस तो अपना वोट बैंक बचा लेने में कामयाब रही तथा उसे एक-दो फीसदी मतों का ही नुकसान हुआ। लेकिन अकाली दल को करीब 12 फीसदी मतों का नुकसान हुआ। यह माना गया है कि ये मत आप की झोली में गए। आप को करीब 24 फीसदी मत मिले थे जिसमें से एक बड़ा हिस्सा अकाली मतों का था।

दलित मुख्यमंत्री का दांव

पंजाब में चुनाव से पूर्व भाजपा ने दलित मुख्यमंत्री का दांव चला है। लेकिन गुजराल मानते हैं कि इसका कोई असर नहीं होगा। भाजपा राज्य में जमीन पर कहीं नहीं है। उसका वोट पांच फीसदी के करीब है। फिर किसान आंदोलन की नाराजगी। ऐसे में सिर्फ कह देने से कुछ नहीं होता है। गुजराल के अनुसार, अकाली दल ने पहले ही घोषणा की है कि यदि उनकी पार्टी सरकार में आती है तो वह पहले ही दिन दलित उपमुख्यमंत्री बनाएंगे।

एकला चलो कारगर नहीं

बसपा ने यूपी से बाहर चुनावों में हिस्सा जरूर लिया है तथा सीटें भी जीती हैं लेकिन ऐसा प्रतीत होता है कि उसने कभी इन्हें गंभीरता से नहीं लिया। नतीजा यह है कि उसे कोई फायदा नहीं हुआ। मसलन, मध्य प्रदेश के पिछले चुनाव में बसपा को पांच फीसदी वोट मिले। 2 सीटें मिली। कांग्रेस से मिलकर यदि चुनाव लड़ा होता तो उसकी सीटें बढ़ सकती थीं और कांग्रेस के साथ सरकार में भी आ सकती थी। शायद कांग्रेस की सरकार न गिरती। इसी प्रकार चार फीसदी मतों के साथ राजस्थान में छह सीटें लाने वाली बसपा खाली हाथ है। इसलिए ऐसा लगता है कि अकाली दल के साथ गठबंधन में जाकर बसपा अब दूसरे राज्यों में भी नई रणनीति के तहत चुनावी शुरुआत करने जा रही है।

पंजाब से मिलेगी संजीवनी?

हाल के चुनावों में बसपा का चुनावी प्रदर्शन बेहद खराब रहा है। लोकसभा चुनाव हों या यूपी विधानसभा चुनाव या फिर हालिया पंचायत चुनाव। सब जगह बसपा को झटके लगे हैं। ऐसे में पंजाब के इस प्रयोग पर सबकी नजरें होंगी।

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